Saturday, 13 November 2010

दो शेर अशआर /आदिल रशीद /aadil rasheed

आज निपटे हैं ज़िम्मेदारी से आज से
आज से तुम को याद करना है
जिन्दगी की उलझनों ने मुझे इतना वक़्त नहीं दिया के मैं तुम्हे उस एहतमाम से याद कर सकूं, उस तरह याद कर सकूं जिस तरह याद किया जाना तुम्हारा हक है मुझ पर मै आज ज़िन्दगी की तमाम उलझनों से आज़ाद हूँ आज मैं वाकई तुम्हे उस तरह याद कर सकता हूँ सच्चे दिल से ...............याद करने का अभिनय नहीं

पहले फरयाद उन से करनी है
फैसला उसके बाद करना है
पहले रिश्ता बहाल करने की इल्तिजा ,फरयाद गुज़ारिश, बीते खुशनुमा दिनों का हवाला,वास्ता यानि हर मुमकिन कोशिश के किसी तरह रिश्ता बहाल रहे ,और जब कोई रास्ता न बचे तो फिर हार के बे मन से एक गम्भीर फैसला यानि तर्के ताल्लुक
आदिल रशीद

Wednesday, 3 November 2010

find your self /pahchano aap is me kahan ho











कालागढ की धनतेरस/ kalagarh ki dhanteras/aadil rasheed

 कालागढ की धनतेरस
कालागढ वर्क चार्ज कालोनी गूरू द्वारे के और डाक खाना के पास ही सहोदर पनवाडी की दुकान थी जहाँ  मै आदिल  रशीद उर्फ़ चाँद, और मेरे बचपन के दोस्त शमीम,शन्नू,असरार फास्ट बोलर,धर्मपाल धर्मी , दिनेश सिंह रावत, टोनी, संजय जोजफ़,जाकिर अंसारी अकेला,सलीम बेबस,रमेश तन्हा,राजू,यूसुफ़,शिवसिंह,गौरी,काले,अरविन्द,शीशपाल,नरेश,करतार,दिलीप सिंह बिष्ट जिसे हम सब दिलीप सिंह भ्रष्ट कहते थे जमा होते थे.
हमारी एक अलग भाषा थी तुफुनफे उफुस सफे कुफुछ क्फ्हफा थफा (तूने उस से कुछ कहा था ) ....सब बुज़ुर्ग हमारा मुंह देखते हम खूब मजाक करते खूब हँसते.

मेरा और जाकिर अंसारी अकेला का एक अलग तरह का शौक़ था या यूँ कहिये जूनून था अपने कालागढ़ का नाम मशहूर करने का इसके लिए हम रेडिओ स्टेशन पर गाने की फरमाईश भेजते उस समय पोस्ट कार्ड 10 पैसे का होता था जो जेब खर्च मिलता सारे पैसों के पोस्टकार्ड ले लेते. आपकी पसंद , आपकी फरमाईश , युव वाणी जैसे प्रोग्राम जो नजीबाबाद रामपुर दिल्ली से प्रसारित होते थे उन प्रोग्राम में जब हमारा नाम आता और उद्घोषक या उद्घोषिका कहती के इस गीत की फरमाईश करने वाले हैं कालागढ़ से आदिल चाँद, जाकिर अकेला,सलीम बेबस, रमेश तन्हा तो हम ऐसे उछलते ऐसे उछलते वैसे तो अब हम वर्ल्ड कप जीतने पर भी नहीं उछलते.

बाद का काम दोस्तों ने बखूबी अंजाम दिया ख़त दोस्त डालते नफीसा और जमीला का नाम लिख के ताजपोशी हम तीनों की होती.
बाद में उस पार्टी में फिल्म न दिखाने  के कारण फूट पड़ी और एक "विधायक"टूट कर हमारे दल में आ गया उस ने हम तीनो के परिवार वालों को बताया के बाद के सभी पोस्टकार्ड हमारे उन्ही परम मित्रों ने ही पोस्ट किये थे जो हमारी ताजपोशी के बाद हमारे साथ लाल -लाल आंसुओं से रोया भी करते थे:

दोस्त पक्के हैं मेरे गम में भी रोयेंगे मगर
दिल दुखाना भी ये शैतान नहीं छोड़ेंगे (आदिल रशीद)

चांदनी रातों में पहाड़ों का हुस्न कोई शब्दों में बयान नहीं कर सकता उसे तो बस महसूस किया जा सकता है ,वही दौर वी सी आर  का शुरूआती दौर भी था  50  पैसे में नई से नई फिल्म ज़मीन पर बैठ कर और एक रूपये  में बालकोनी में यानि छ्त से बैठकर.
सहोदर की दुकान ही  सारी प्लानिंग का अड्डा थी वही से सब ख़बरें मिला करती थी कहाँ क्या हुआ ,कहाँ क्या होगा ,
सहोदर कि दुकान के बगल में ही रात को  भजन कीर्तन पुरबिया गीतों कि महफ़िल जमती और जब सुकुमार भैया और शारदा भौजी बिरहा गाते तो मन हूम-हूम करता उस समय यही मनोरंजन का साधन था और दिन में टोनी के टेलीवीजन (जो पूरी कालोनी में इकलोता टी वी था और सउदी अरब से टोनी का भाई लाया था ) पर इंडिया पाकिस्तान का टेस्ट मैच चलता तो २५-३० फुट ऊँचा बांस पर एंटीना लगा होता और झिलमिलाती हुई तस्वीर को साफ़ कने कि नाकाम कोशिश में पूरा दिन निकल जाता....अरे -अरे थोडा बाएं थोडा सा दायें बस बस अरे पहले साफ़ था अब और ख़राब होगया  अब दूसरा तीस मार खां  जाता हट तेरे बस का कुछ नहीं मैं करता हूँ और चार चार महारथी एक साथ और देख कर भी उस टीवी रुपी मछली कि आँख न भेद पाते और शाम हो  जाती,
तमन्ना अमरोहवी का क्वाटर C-823 था यानि दीवार से दीवार मिली थी उनके यहाँ अक्सर मजलिस का एहतमाम होता मर्सिहा,मंक़वत,सलाम ,कि महफ़िल जमती मैं भी अम्मी अब्बू के साथ  वहाँ जाता धीरे धीरे मैं ने बोलना सीखा होगा मुझे लगता है यही मजलिसें  मेरी शायरी कि बुनियाद है क्युनके वहां इतनी बढ़िया और मुदल्लल शायरी सुनी है जो आज भी ज़हनो दिल पर हावी है 
सहोदर की दुकान से धन्नो का मकान साफ़ नज़र आता था,और एक रास्ता पूनम के घर की तरफ़ जाता था बाद मे राजू की शादी पूनम से हुई दोस्तो की देर रात तक महफ़िल जमतीं थी,रात को सब अपने-अपने परिवार के साथ घूमने निकलते थे,लडकियाँ बहुए और भाभीयाँ एक साथ हो जाती थी,बूढे अलग जवान अलग,देर रात तक क्लब के अन्दर और मैदान मे डेरा रहता फ़िर सब वापस आते
दुर्गा पूजा,रामलीला के दिनो मे तो जैसे बहार ही आ जाती थी इन ही दिनो का तो साल भर इन्तजार रहता था मुझे आज भी याद है के दुर्गा पूजा और रामलीला के बाद धनतेरस आती अम्मी और अब्बु धनतेरस पर खूब खरीदारी करते कई बार कुछ तंग जहन मुस्लिम्स ने टोका भी के अब्दुल रशीद साहेब धनतेरस पर आप खरीदारी क्यूँ करते हैं ये इस्लाम के खिलाफ़ है अब्बू सिर्फ़ मुस्करा देते एक धनतेरस पर अब्दुल्लाह साहेब ज़िद ही पकड गये और कई मुस्लिम दोस्तो के साथ अब्बू को शर्मीन्दा करने पर आमादा हो गये तो अब्बू ने मुस्कराते हुए जवाब दिया के पूरी कालोनी इस दिन खरीदारी करती है बच्चे कितनी बेसब्री से इस दिन का इन्तज़ार करते है इन मासूमो का दिल दुखाना मेरे बस की बात नही बच्चो को बच्चा ही रहने दें इन के ज़ह्नो मे हिन्दू मुस्लिम का ज़हर न घोलें
मुझे खूब याद है दीपावली की रात एक दुसरे को तोहफे देते समय आँखे नम हो जाती थीं पता नही अगले साल हम यहाँ रहेगे या तबादला हो जायेगा क्यूँ के  वहाँ सब परदेसी थे सरकारी मुलाजिम थे और बिछडने का खौफ़ हमेशा रहता था
वहाँ धर्म जाति का आडम्बर नही था शिया सुन्नी का झगड़ा भी नहीं था किसी का किसी से खून का रिश्ता भी नही था मगर एक बेशकीमती रिश्ता था मुहब्बत का रिश्ता, अपनेपन का रिश्ता मुझे हर धनतेरस पर बहुत से चेहरे हू ब हू बैसे ही याद आ जाते हैं जैसे वो उस समय थे  उन मे से बहुत से तो अब इस दुनिया मे भी नही होंगे (देखें नोट) और बहुत से मेरी ही तरह बूढापे की दहलीज़ पर होगे मगर खयालो मे वो आज भी वैसे ही आते हैं जैसा मैने उन को  आखिरी  बार देखा था ...... मै अपने ये शेर उन को समर्पित करता हूँ

वो जब भी ख्वाब मे आये तो रत्ती भर नहीं बदले
ख्यालों मे बसे चेहरे कभी बूढे नहीं होते

ज़रा पुरवाई चल जाए तो टांके टूट जाते हैं
बहुत से ज़ख्म होते है, कभी अच्छे नहीं होते

हमारे ज़ख्म शाहिद हैं के तुम को याद रक्खा है
अगर हम भूल ही जाते तो ये रिसते नहीं होते

कई मासूम चेहरे याद आये
किताबों से जो पर तितली के निकले 

है  यही  तो  कमाल   यादों  का  
ये हमेशा जवान रहती हैं  


नोट 1.जैसे सरिता भाभी नीता भाभी कविता दीदी,रजनी दीदी, जगदीश भैया,सहोदर भैया सुकुमार भैया ,शारदा भौजी , हमारी उम्र उस वक़्त 12-15 वर्ष की थी और इन सब कि लगभग30-35
2.  चोबे अंकल,किशन अंकल,शर्मा अंकल ,सक्सेना अंकल,वर्माजी , रावत अंकल, नथानी अंकल, गोस्वामी अंकल,शकूर चच्चा, रमजानी चच्चा,अब्दुल्लाह चच्चा,नसीम चच्चा,पुत्तन चच्चा,मिर्ज़ा जी रिज़वी साहेब,तमन्ना अमरोहवी साहेब,सिद्दीकी ठेकेदार,ज़फीर ठेकेदार, नकवी साहेब पुलिस चौकी के पास वाले, दुसरे नकवी साहेब हैडिल कालोनी थोमस अंकल जोसेफ अंकल,सरदार परमजीत पम्मी और एक साहेब जो बालीबाल में पूरी कालोनी के उस्ताद थे शिया थे टोनी के सामने रहते थे मैं उन का नाम भूल रहा हूँ (शायद शकील रज़ा था ) और बहुत से अब्बू के दोस्त और अम्मी की सहेलियां    

............आदिल रशीद 3-11-2010
शाहिद= गवाह,
मेरा जन्म C-824,वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ में हुआ घर में सब चाँद कहते थे , अब्बू का नाम अब्दुल रशीद, बड़े भाई का नाम खलील अहमद ,उसके बाद तौफीक अहमद,छोटा भाई रईस छुट्टन बहन किसवरी,मिसवरी,और कौसर परवीन
भाई साहेब खलील के दोस्त रज्जन,प्रदीप शॉप no.4,मुन्ना ठेकेदार,सलाउद्दीन नाई, 


बाद का काम दोस्तों ने बखूबी अंजाम दिया ख़त दोस्त डालते नफीसा और जमीला का नाम लिख के ताजपोशी हम तीनों की होती.
बाद में उस पार्टी में फिल्म न दिखाने  के कारण फूट पड़ी और एक "विधायक"टूट कर हमारे दल में आ गया उस ने हम तीनो के परिवार वालों को बताया के बाद के सभी पोस्टकार्ड हमारे उन्ही परम मित्रों ने ही पोस्ट किये थे जो हमारी ताजपोशी के बाद हमारे साथ लाल -लाल आंसुओं से रोया भी करते थे:

Saturday, 16 October 2010

आज विजय दशमी ईद है /आदिल रशीद/ कालागढ/kalagarh/17/10/2010

आज विजय दशमी यानी ईद है
रोम रोम फिर व्याकुल है
कितनी यादे सिमट कर एक कहानी सी कह रहीं हैं.आज का दिन एक खास उल्लास का दिन होता था दुर्गा पूजा रावण दहन का दिन मोज मस्ती का दिन.
बिल्कुल आज की ईद जैसा,
क्य़ू के आज तो मेरे बच्चों की ज़िन्दगी में केवल दो ही ईदें हैं
कालागढ मे तो मेरे बचपन मे कितनी ईदें होती थी.दुर्गा पूजा रावण दहन विजय दशमी की ईद ,होली की ईद,क्रिसमस की ईद ,रक्षा बंधन की ईद विश्वकर्मा दिवस की ईद,
15 अगस्त, 26 जनवरी, 2अक्तूबर, रविदास जयंतीकी ईद.
रविदास जयंती,15अगस्त 26जनवरी, 2 अक्तूबर को होने वाले खेलों में 100मीटर रेस में हमेशा शन्नू और शमीम को हराकर 50 पैसे क़ा पेन (गोल्ड मेडल ) जितने की ईद ऊँची कूद में हर बार शन्नू से हार जाने की ईद क्यूँ के गोल्ड मेडल जीता तो दोस्त ही और दोस्ती मे क्या तेरा और क्या मेरा।
अपने जन्म दिन 25 दिसम्बर पर हर बार मिसेज़ विलियम का एक ह़ी डायलाग सुनने की ईद "तुम ने मेराक्रिसमस खराब किया था संन" क्यूँ के मैं और मेरा छोटा भाई छुट्टन 25 दिसम्बर को ह़ी पैदा हुए थे और दोनों बार उन्होंने पूरी रात जश्न के बजाये अस्पताल मे काटी
थी
और भी बहुत सी छोटी छोटी ईदें जैसे के शन्नू के ख़त का जवाब आ जाने की ईद, रश्मि गहलोत के घर की राजस्थानी कचोरी खाने की ईद ,सब दोस्तों का पैसे मिला कर डबल सेवेन या कोका कोका कोला पीने की ईद हरमहीने की पहली तारीख की ईद क्यूँ के उस तारीख को पापा को तन्खवाह मिलती थी और हमें कोई कोई तोहफा हर तब रोज़ एक ईद होती थी क्यूँ के ईद अरवी का शब्द (लफ्ज़ ) है जिसके लुग्वी यानि शाब्दिक अर्थ है, ख़ुशी ,वो ख़ुशी जो रोम रोम से महसूस हो, बार -बार आने वाली ख़ुशी,
शन्नू और शमीम हमेशा रेस में हारने पर कहा करते थे के बच्चू एक दिन तुझे ज़रूर हरायेगे और ज़िन्दगी की दौड में वाकई दोनों ने
मुझे हरा दिया शन्नू 1990 में ही और शमीम अभी २महीने पहले सउदी अरब में मुझे तनहा छोड़ गया और आज मेरी रेस सिर्फ और सिर्फ खुद से है ..............आदिल रशीद (चाँद) 18/10/2010

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

यादो के रंगों को कभी देखा है तुमने

कितने गहरे होते हैं

कभी न छूटने वाले

कपडे पर रक्त के निशान के जैसे

मुद्दतों बाद आज आया हूँ मैं

इन कालागढ़ की उजड़ी बर्बाद वादियों में

जो कभी स्वर्ग से कहीं अधिक थीं

जाति धर्म के झंझटों से दूर

सोहार्द सदभावना प्रेम की पावन रामगंगा

तीन बेटियों और एक बेटे का पिता हूँ मैं आज

परन्तु इस वादी मे आकर

ये क्या हो गया

कौन सा जादू है

वही पगडंडी जिस पर कभी

बस्ता डाले कमज़ोर कन्धों पर

जूते के फीते खुले खुले से

बाल सर के भीगे भीगे से

स्कूल की तरफ भागता ,

वापसी मे

सुकासोत की ठंडी रेट पर

जूते गले में डाले

नंगे पैरों पर वो ठंडी रेत का स्पर्श

सुरमई धुप मे

आवारा घोड़ों

और कभी कभी गधों को

हरी पत्तियों का लालच देकर पकड़ता

और उन पर सवारी करता

अपने गिरोह के साथ डाकू गब्बर सिंह

रातों को क्लब की

नंगी ज़मीन पर बैठ फिल्मे देखता

शरद ऋतू में रामलीला में

वानर सेना कभी कभी

मजबूरी में बे मन से बना

रावण सेना का एक नन्हा सिपाही

और ख़ुशी ख़ुशी रावण की हड्डीया लेकर

भागता बचपन मिल गया

आज मुद्दतों पहले

खोया हुआ

चाँद मिल गया

Friday, 15 October 2010

kalagah ki yaad me ek sher by aadil rasheed

kai maasoom chehre yaad aaye
kitabon se jo par titli ke nikle

arth: aaj mujhe apne bachpan ke kai maasom maasoom chehre yaad aagaye jaise rishi raaj kishor shameem,zakir,sanjay joseph gauri shankar,sheeshpaal,kaale arvind,khutku jerry john, shannu,dilip singh bisht,dharmi,deenu,anusuiya,rehana,rashmi gehlot ,tabassum arshi,vipin chaand,soniya ,naresh,ganga,jagdeesh,ramesh,saleem,raaju,yusuf,toni
jasvindar singh jassa master astarni, sukhdev,rais,nafees, nafeesa,jameel .........
kyunki bachpan me kabhi chhupaye titli ke par aaj kuch puraani kitabon se nikal aaye

kalagarh ki kuchh tasveeren /aadil rasheed





meri puraani yaaden tasveer ki shakl men /aadil rasheed


zakir akela aur main


zakir akela ,aur main chaand


waseem barelvi, mueen shaadab

ek mushayre









meri ek puraani tasveer/aadil rasheed


ek ghazal aadil rasheed



रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
Saturday, September 04, 2010 7:25 AM
मैंने अपनी ये ग़ज़ल 15 अगस्त,1989 की रात को नगर पालिका तिलहर में एक काव्य गोष्टी में इसका पाठ किया तो अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन एस डी एम साहेब ने इस के निम्न लिखित शेर
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर 50 रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
ग़ज़ल

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है

हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है

ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है

अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है

आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है
और चाँद नाम से क्यूँ लिखा इस की एक अलग कहानी है वो फिर कभी ]

kalagarh-कालागढ़/ aadil rasheed

मेरा जन्म 25 दिसम्बर 1967 को सी-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ उत्तराखंड भारत में हुआ मेरा पैत्रक गांव तिलहर ज़िला शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश है .मेरे पिता स्वर्गीय अब्दुल रशीद सिचाई विभाग कालागढ़ उत्तराखंड में थे और उर्दु हिन्दी के आलोचक थे क्यूंकि उनको आलोचना का ज्ञान दादा जी कारी सुलेमान से प्राप्त हुआ था जो अरबी उर्दू फारसी के विद्वान् थे घर में साहित्य का माहोल था पड़ोस में ही एक शायर भी रहते थे जिनका नाम था तमन्ना अमरोही था. उनके घर और हमारे घर अदब की खूब महफ़िलें मजलिसें सजती थीं बड़े भाई का नाम खलील ,उनसे छोटे तौफीक मेरे छोटे का नाम रईस छुट्टन था कई कालागढ़ में दवाई की एक ही दूकान थी संजीव भैया की शॉप नो.4, मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई घर में ही उर्दू अरबी की शिक्षा मां सरवरी बेगम और बड़ी बहिन कौसर परवीन के द्वारा हुई. मैं ने अपनी बारह वर्ष की उम्र में पहली टूटी फूटी कुन्ड्ली कही जो काका हाथरसी की शैली में थी वो कुन्ड्ली थी
कालागढ़ में पी.टी.सी. का खूब हुआ प्रचार
पी.टी.सी. की आड में चला राजनीति हथियार
चला राजनीति हथियार सेन्टर खुल ना पाया
चारो ओर घूमता अब बेरोजगारी का साया
क्या चली है चाल दिल खुश हो गय मेरे आका
था शान्त कर दिया घोषित अशान्त इलाका
इस कुन्ड्ली को हमारे ही पड़ोस में रहने वाले पंडित जी श्री ह्रदय शंकर चतुर्वेदी जी ने अमर उजाला को भेज दिया और यह प्रकाशित हुई. जिसमे मेरा उप नाम चाँद छपा था हमारे गुरूजी श्री नंदन जी जो खुद एक हिंदी के कवि थे ने पढ़ी और मेरी बड़ी सराहना की फिर मेरि कुन्ड्लियां खूब प्रकाशित होने लगीं गुरूजी श्री नंदन जी ने पिताजी को बताया पिता जी ने बुला कर कहा कि कविता करनी ही है तो पहले साहिर लुध्यान्वी को पढो और देहली से हिंदी में साहिर की एक पुस्तक डाक द्वारा मंगा कर दी और फिर मुझे शायरी के बारे में बताया पिताजी के पास उर्दू की बहुत सी पुस्तकें आती थी बाद में मैं ने महबूब हसन खान नय्यर तिलहरी को भी अपनी ग़ज़लें दिखाईं और भारत से निकलने वाले सभी अखबार और पत्रिकाओं में मेरी रचनाये प्रकाशित हुईं अपनी बीमारी और गिरती सेहत के कारण नय्यर साहेब मुझे अपने साथी ताहिर तिलहरी के पास छोड़ आये ,मगर खुदा ने उनको नय्यर साहेब से पहले ही अपने पास बुला लिया 1992 में देहली आ गया और शायरी को त्याग दिया, मगर शेर कहता रहा aur प्रकाशित होता रहा एक मुलाक़ात में साहित्य के मशहूर आलोचक एव मुंशी प्रेम चाँद पर पी एच डी प्रो कमर रईस जो मेरे ही वतन के रहने वाले थे और पिताजी के बचपन के दोस्त भी उन्होने कहा की चाँद तुम्हारी शायरी में एक बात मुझे अच्छी लगी के तुम्हारे यहाँ मुहावरे बहुत आ रहे हैं जो हमारे भारत की एक अमूल्य धरोहर है और यही बात है जो तुम्हे और शायरों से अलग करती है तो मेरा ध्यान इस ओर गया उन्होंने ये भी कहा के एक ऐसी ग़ज़ल मुमकिन है तुम कहो जिसमे सिर्फ मुहावरे ही मुहावरे हो और उसे मुहावरा ग़ज़ल कहा जाए ये उर्दू हिंदी साहित्य में एक नया काम होगा और तुम अगर कोशिश करो तो ये हो सकता है मैं ने उनकी बात पल्लू से बाँध ली और फिर मैं ऐसी दो ग़ज़लें लेकर उनके पास गया वो बहुत प्रसन्न हुए और मुझे आशीर्वाद दिया आज वो हमारे बीच नहीं हैं मगर उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहेगा मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा के उनके मशवरे ने मुझे हिंदी उर्दू साहित्य की पहली मुहावरा ग़ज़ल कहने सौभाग्य प्रदान किया
मैं अपनी सभी मुहावरा ग़ज़लें स्वर्गीय प्रो.कमर रईस को समर्पित करता हूँ ....आदिल रशीद


ग़ज़ल
आदिल रशीद
सारी दुनिया देख रही हैरानी से
हम भी हुए हैं इक गुड़िया जापानी से

बाँट दिए बच्चों में वो सारे नुस्खे
माँ ने जो भी कुछ सीखे थे नानी से

ढूंढ़ के ला दो वो मेरे बचपन के दिन
जिन मे कुछ सपने हैं धानी-धानी से

प्रीतम से तुम पहले पानी मत पीना
ये मैं ने सीखा है राजस्थानी से

मै ने कहा था प्यार के चक्कर में मत पड़
बाज़ कहाँ आता है दिल मनमानी से

बिन तेरे मैं कितना उजड़ा -उजड़ा हूँ
दरिया की पहचान फ़क़त है पानी से

मुझ से बिछड़ के मर तो नहीं जाओगे तुम
कह तो दिया ये तुमने बड़ी आसानी से

पिछली रात को सपने मे कौन आया था
महक रहे हो आदिल रात की रानी से
आदिल रशीद
kalagarh

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

यादो के रंगों को कभी देखा है तुमने
कितने गहरे होते हैं
कभी न छूटने वाले
कपडे पर रक्त के निशान के जैसे
मुद्दतों बाद आज आया हूँ मैं
इन कालागढ़ की उजड़ी बर्बाद वादियों में
जो कभी स्वर्ग से कहीं अधिक थीं
जाति धर्म के झंझटों से दूर
सोहार्द सदभावना प्रेम की पावन रामगंगा
तीन बेटियों और एक बेटे का पिता हूँ मैं आज
परन्तु इस वादी मे आकर
ये क्या हो गया
कौन सा जादू है
वही पगडंडी जिस पर कभी
बस्ता डाले कमज़ोर कन्धों पर
जूते के फीते खुले खुले से
बाल सर के भीगे भीगे से
स्कूल की तरफ भागता ,
वापसी मे
सुकासोत की ठंडी रेट पर
जूते गले में डाले
नंगे पैरों पर वो ठंडी रेत का स्पर्श
सुरमई धुप मे
आवारा घोड़ों
और कभी कभी गधों को
हरी पत्तियों का लालच देकर पकड़ता
और उन पर सवारी करता
अपने गिरोह के साथ डाकू गब्बर सिंह
रातों को क्लब की
नंगी ज़मीन पर बैठ फिल्मे देखता
शरद ऋतू में रामलीला में
वानर सेना कभी कभी
मजबूरी में बे मन से बना
रावण सेना का एक नन्हा सिपाही
और ख़ुशी ख़ुशी रावण की हड्डीया लेकर
भागता बचपन मिल गया
आज मुद्दतों पहले
खोया हुआ
चाँद मिल गया

kalagarh ki zindagi



शायद ज़िन्दगी बदल रही है!


शायद ज़िन्दगी बदल रही है!!
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था
वहां, चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं, फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...
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जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी.
मैं हाथ में पतंग की डोर पकडे, घंटो उडा करता था, वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल, वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..
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जब मैं छोटा था, शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना, वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना, अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है, जब भी "ट्रेफिक सिग्नल" पे मिलते हैं "हाई" करते
हैं, और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दिवाली, जन्मदिन , नए साल पर बस SMS आ जाते हैं
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
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जब मैं छोटा था, तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट थे केक, टिप्पी टीपी टाप.
अब इन्टरनेट, ऑफिस, हिल्म्स, से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
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जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है.. जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर बोर्ड पर
लिखा होता है.
"मंजिल तो यही थी, बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी यहाँ आते आते "
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जिंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है.
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने मैं ही हैं.
अब बच गए इस पल मैं..
तमन्नाओ से भरे इस जिंदगी मैं हम सिर्फ भाग रहे हैं..
हम अब जिंदगी को जी कहाँ रहे है सिर्फ़ काट रहे हैं

वाकई ज़िन्दगी बदल चुकी है!