Tuesday, 8 November 2011

sahodar ki dukan in kalagarh by aadil rasheed

कालागढ की धनतेरस
कालागढ वर्क चार्ज कालोनी गूरू द्वारे के और डाक खाना के पास ही सहोदर पनवाडी की दुकान थी जहाँ मै आदिल रशीद
 उर्फ़ चाँद, और मेरे बचपन के दोस्त दिलीप सिंह बिष्ट , दिनेश सिंह रावत उर्फ़ दीनू ,धरम पल सिंह धर्मी,शमीम,शन्नू,असरार फास्ट बोलर,संजय जोजफ़,जाकिर अकेला,सलीम बेबस,रमेश तन्हा,राजू,यूसुफ़,शिवसिंह,गौरी,काले,अरविन्द,शीशपाल,नरेश,करतार,सभी जमा होते थे,और हमारी एक अलग भाषा थी तुफुनफे उफुस नफे सफे ....सब बुज़ुर्ग हमारा मुंह देखते हम खूब मजाक करते,
चांदनी रातों में पहाड़ों का हुस्न कोई शब्दों में बयान नहीं कर सकता उसे तो बस महसूस किया जा सकता है ,वही दौर वी सी आर का शुरूआती दौर भी था 50 पैसे में नई से नई फिल्म ज़मीन पर बैठ कर और एक रूपये में बालकोनी में यानि छ्त से बैठकर.
सहोदर की दुकान ही सारी प्लानिंग का अड्डा थी वही से सब ख़बरें मिला करती थी कहाँ क्या हुआ ,कहाँ क्या होगा ,
सहोदर कि दुकान के बगल में ही रात को भजन कीर्तन पुरबिया गीतों कि महफ़िल जमती और जब सुकुमार भैया और शारदा भौजी बिरहा गाते तो मन हूम-हूम करता उस समय यही मनोरंजन का साधन था और दिन में टोनी के टेलीवीजन (जो पूरी कालोनी में इकलोता टी वी था और सउदी अरब से टोनी का भाई लाया था ) पर इंडिया पाकिस्तान का टेस्ट मैच चलता तो २५-३० फुट ऊँचा बांस पर एंटीना लगा होता और झिलमिलाती हुई तस्वीर को साफ़ कने कि नाकाम कोशिश में पूरा दिन निकल जाता....अरे -अरे थोडा बाएं थोडा सा दायें बस बस अरे पहले साफ़ था अब और ख़राब होगया अब दूसरा तीस मार खां जाता हट तेरे बस का कुछ नहीं मैं करता हूँ और चार चार महारथी एक साथ और देख कर भी उस टीवी रुपी मछली कि आँख न भेद पाते और शाम हो जाती,
तमन्ना अमरोहवी का क्वाटर C-823 था यानि दीवार से दीवार मिली थी उनके यहाँ अक्सर मजलिस का एहतमाम होता मर्सिहा,मंक़वत,सलाम ,कि महफ़िल जमती मैं भी अम्मी अब्बू के साथ वहाँ जाता धीरे धीरे मैं ने बोलना सीखा होगा मुझे लगता है यही मजलिसें मेरी शायरी कि बुनियाद है क्युनके वहां इतनी बढ़िया और मुदल्लल शायरी सुनी है जो आज भी ज़हनो दिल पर हावी है
सहोदर की दुकान से धन्नो का मकान साफ़ नज़र आता था,और एक रास्ता पूनम के घर की तरफ़ जाता था बाद मे राजू की शादी पूनम से हुई दोस्तो की देर रात तक महफ़िल जमतीं थी,रात को सब अपने-अपने परिवार के साथ घूमने निकलते थे,लडकियाँ बहुए और भाभीयाँ एक साथ हो जाती थी,बूढे अलग जवान अलग,देर रात तक क्लब के अन्दर और मैदान मे डेरा रहता फ़िर सब वापस आते
दुर्गा पूजा,रामलीला के दिनो मे तो जैसे बहार ही आ जाती थी इन ही दिनो का तो साल भर इन्तजार रहता था मुझे आज भी याद है के दुर्गा पूजा और रामलीला के बाद धनतेरस आती अम्मी और अब्बु धनतेरस पर खूब खरीदारी करते कई बार कुछ तंग जहन मुस्लिम्स ने टोका भी के अब्दुल रशीद साहेब धनतेरस पर आप खरीदारी क्यूँ करते हैं ये इस्लाम के खिलाफ़ है अब्बू सिर्फ़ मुस्करा देते एक धनतेरस पर अब्दुल्लाह साहेब ज़िद ही पकड गये और कई मुस्लिम दोस्तो के साथ अब्बू को शर्मीन्दा करने पर आमादा हो गये तो अब्बू ने मुस्कराते हुए जवाब दिया के पूरी कालोनी इस दिन खरीदारी करती है बच्चे कितनी बेसब्री से इस दिन का इन्तज़ार करते है इन मासूमो का दिल दुखाना मेरे बस की बात नही बच्चो को बच्चा ही रहने दें इन के ज़ह्नो मे हिन्दू मुस्लिम का ज़हर न घोलें
मुझे खूब याद है दीपावली की रात एक दुसरे को तोहफे देते समय आँखे नम हो जाती थीं पता नही अगले साल हम यहाँ रहेगे या तबादला हो जायेगा क्यूँ के वहाँ सब परदेसी थे सरकारी मुलाजिम थे और बिछडने का खौफ़ हमेशा रहता था
वहाँ धर्म जाति का आडम्बर नही था शिया सुन्नी का झगड़ा भी नहीं था किसी का किसी से खून का रिश्ता भी नही था मगर एक बेशकीमती रिश्ता था मुहब्बत का रिश्ता, अपनेपन का रिश्ता मुझे हर धनतेरस पर बहुत से चेहरे हू ब हू बैसे ही याद आ जाते हैं जैसे वो उस समय थे उन मे से बहुत से तो अब इस दुनिया मे भी नही होंगे (देखें नोट) और बहुत से मेरी ही तरह बूढापे की दहलीज़ पर होगे मगर खयालो मे वो आज भी वैसे ही आते हैं जैसा मैने उन को आखिरी बार देखा था ...... मै अपने ये शेर उन को समर्पित करता हूँ
वो जब भी ख्वाब मे आये तो रत्ती भर नहीं बदले
ख्यालों मे बसे चेहरे कभी बूढे नहीं होते
ज़रा पुरवाई चल जाए तो टांके टूट जाते हैं
बहुत से ज़ख्म होते है, कभी अच्छे नहीं होते
हमारे ज़ख्म शाहिद हैं के तुम को याद रक्खा है
अगर हम भूल ही जाते तो ये रिसते नहीं होते
कई मासूम चेहरे याद आये
किताबों से जो पर तितली के निकले
नोट 1.जैसे सरिता भाभी नीता भाभी कविता दीदी,रजनी दीदी, जगदीश भैया,सहोदर भैया सुकुमार भैया ,शारदा भौजी , हमारी उम्र उस वक़्त 12-15 वर्ष की थी और इन सब कि लगभग30-35
2. चोबे अंकल,किशन अंकल,शर्मा अंकल ,सक्सेना अंकल,वर्माजी , रावत अंकल, नथानी अंकल, गोस्वामी अंकल,शकूर चच्चा, रमजानी चच्चा,अब्दुल्लाह चच्चा,नसीम चच्चा,पुत्तन चच्चा,मिर्ज़ा जी रिज़वी साहेब,तमन्ना अमरोहवी साहेब,परचम साहेब,सिद्दीकी ठेकेदार,ज़फीर ठेकेदार, नकवी साहेब(C-855) दुसरे नकवी साहेब हैडिल कालोनी थोमस अंकल जोसेफ अंकल,सरदार परमजीत पम्मी और एक साहेब जो बालीबाल में पूरी कालोनी के उस्ताद थे शिया थे टोनी के सामने रहते थे मैं उन का नाम भूल रहा हूँ शायद शकील राजा था और बहुत से अब्बू के दोस्त और अम्मी की सहेलियां
............आदिल रशीद 3-11-2010
शाहिद= गवाह,
मेरा जन्म C-824,वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ में हुआ घर में सब चाँद कहते थे , अब्बू का नाम अब्दुल रशीद, बड़े भाई का नाम खलील अहमद ,उसके बाद तौफीक अहमद,छोटा भाई रईस छुट्टन बहन किसवरी,मिसवरी,और कौसर परवीन
भाई साहेब खलील के दोस्त रज्जन,प्रदीप शॉप no.4,मुन्ना ठेकेदार,सलाउद्दीन नाई,

2 comments:

  1. that's a brilliant work sir,.,.,.!! i have salute only to pay my gratitude for revealing the beauty of all type parts in life of Kalagarh . Really it was an awesome place and your word make it on again.

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    1. vaibhav saheb shukriya lekin aap kabhi sampark hi nahin banate plz mail me aadilrasheed1967@gmail.com
      9811444626

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