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Friday, 6 January 2012
Wednesday, 4 January 2012
Friday, 15 October 2010
kalagarh-कालागढ़/ aadil rasheed
मेरा जन्म 25 दिसम्बर 1967 को सी-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ उत्तराखंड भारत में हुआ मेरा पैत्रक गांव तिलहर ज़िला शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश है .मेरे पिता स्वर्गीय अब्दुल रशीद सिचाई विभाग कालागढ़ उत्तराखंड में थे और उर्दु हिन्दी के आलोचक थे क्यूंकि उनको आलोचना का ज्ञान दादा जी कारी सुलेमान से प्राप्त हुआ था जो अरबी उर्दू फारसी के विद्वान् थे घर में साहित्य का माहोल था पड़ोस में ही एक शायर भी रहते थे जिनका नाम था तमन्ना अमरोही था. उनके घर और हमारे घर अदब की खूब महफ़िलें मजलिसें सजती थीं बड़े भाई का नाम खलील ,उनसे छोटे तौफीक मेरे छोटे का नाम रईस छुट्टन था कई कालागढ़ में दवाई की एक ही दूकान थी संजीव भैया की शॉप नो.4, मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई घर में ही उर्दू अरबी की शिक्षा मां सरवरी बेगम और बड़ी बहिन कौसर परवीन के द्वारा हुई. मैं ने अपनी बारह वर्ष की उम्र में पहली टूटी फूटी कुन्ड्ली कही जो काका हाथरसी की शैली में थी वो कुन्ड्ली थी
कालागढ़ में पी.टी.सी. का खूब हुआ प्रचार
पी.टी.सी. की आड में चला राजनीति हथियार
चला राजनीति हथियार सेन्टर खुल ना पाया
चारो ओर घूमता अब बेरोजगारी का साया
क्या चली है चाल दिल खुश हो गय मेरे आका
था शान्त कर दिया घोषित अशान्त इलाका
इस कुन्ड्ली को हमारे ही पड़ोस में रहने वाले पंडित जी श्री ह्रदय शंकर चतुर्वेदी जी ने अमर उजाला को भेज दिया और यह प्रकाशित हुई. जिसमे मेरा उप नाम चाँद छपा था हमारे गुरूजी श्री नंदन जी जो खुद एक हिंदी के कवि थे ने पढ़ी और मेरी बड़ी सराहना की फिर मेरि कुन्ड्लियां खूब प्रकाशित होने लगीं गुरूजी श्री नंदन जी ने पिताजी को बताया पिता जी ने बुला कर कहा कि कविता करनी ही है तो पहले साहिर लुध्यान्वी को पढो और देहली से हिंदी में साहिर की एक पुस्तक डाक द्वारा मंगा कर दी और फिर मुझे शायरी के बारे में बताया पिताजी के पास उर्दू की बहुत सी पुस्तकें आती थी बाद में मैं ने महबूब हसन खान नय्यर तिलहरी को भी अपनी ग़ज़लें दिखाईं और भारत से निकलने वाले सभी अखबार और पत्रिकाओं में मेरी रचनाये प्रकाशित हुईं अपनी बीमारी और गिरती सेहत के कारण नय्यर साहेब मुझे अपने साथी ताहिर तिलहरी के पास छोड़ आये ,मगर खुदा ने उनको नय्यर साहेब से पहले ही अपने पास बुला लिया 1992 में देहली आ गया और शायरी को त्याग दिया, मगर शेर कहता रहा aur प्रकाशित होता रहा एक मुलाक़ात में साहित्य के मशहूर आलोचक एव मुंशी प्रेम चाँद पर पी एच डी प्रो कमर रईस जो मेरे ही वतन के रहने वाले थे और पिताजी के बचपन के दोस्त भी उन्होने कहा की चाँद तुम्हारी शायरी में एक बात मुझे अच्छी लगी के तुम्हारे यहाँ मुहावरे बहुत आ रहे हैं जो हमारे भारत की एक अमूल्य धरोहर है और यही बात है जो तुम्हे और शायरों से अलग करती है तो मेरा ध्यान इस ओर गया उन्होंने ये भी कहा के एक ऐसी ग़ज़ल मुमकिन है तुम कहो जिसमे सिर्फ मुहावरे ही मुहावरे हो और उसे मुहावरा ग़ज़ल कहा जाए ये उर्दू हिंदी साहित्य में एक नया काम होगा और तुम अगर कोशिश करो तो ये हो सकता है मैं ने उनकी बात पल्लू से बाँध ली और फिर मैं ऐसी दो ग़ज़लें लेकर उनके पास गया वो बहुत प्रसन्न हुए और मुझे आशीर्वाद दिया आज वो हमारे बीच नहीं हैं मगर उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहेगा मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा के उनके मशवरे ने मुझे हिंदी उर्दू साहित्य की पहली मुहावरा ग़ज़ल कहने सौभाग्य प्रदान किया
मैं अपनी सभी मुहावरा ग़ज़लें स्वर्गीय प्रो.कमर रईस को समर्पित करता हूँ ....आदिल रशीद
ग़ज़ल
आदिल रशीद
सारी दुनिया देख रही हैरानी से
हम भी हुए हैं इक गुड़िया जापानी से
बाँट दिए बच्चों में वो सारे नुस्खे
माँ ने जो भी कुछ सीखे थे नानी से
ढूंढ़ के ला दो वो मेरे बचपन के दिन
जिन मे कुछ सपने हैं धानी-धानी से
प्रीतम से तुम पहले पानी मत पीना
ये मैं ने सीखा है राजस्थानी से
मै ने कहा था प्यार के चक्कर में मत पड़
बाज़ कहाँ आता है दिल मनमानी से
बिन तेरे मैं कितना उजड़ा -उजड़ा हूँ
दरिया की पहचान फ़क़त है पानी से
मुझ से बिछड़ के मर तो नहीं जाओगे तुम
कह तो दिया ये तुमने बड़ी आसानी से
पिछली रात को सपने मे कौन आया था
महक रहे हो आदिल रात की रानी से
आदिल रशीद
kalagarh
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