Friday, 15 October 2010

ek ghazal aadil rasheed



रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
Saturday, September 04, 2010 7:25 AM
मैंने अपनी ये ग़ज़ल 15 अगस्त,1989 की रात को नगर पालिका तिलहर में एक काव्य गोष्टी में इसका पाठ किया तो अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन एस डी एम साहेब ने इस के निम्न लिखित शेर
इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है
पर 50 रूपये पुरस्कार के रूप में दिए , जो मेरे जीवन में एक अमूल्य पुरस्कार और सम्मान है बाद में कुछ हिंदी कवियों ने मेरे सम्मान में एक कार्यक्रम रखा और एक शाल भेट की तो कई आदरणीय बुज़ुर्ग उर्दू शायरों ने उस कार्यक्रम का बहिष्कार किया
ग़ज़ल

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फ़र्ज़ तुम्हारा है

हमला हो जो दुश्मन का हम जायेगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है , मंदिर भी हमारा है

ये कह के हुमायूं को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है

अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है

आदिल रशीद
[नोट ;शुरू में मेरी रचनाएं चाँद तिलहरी एव चाँद मंसूरी के नाम से प्रकाशित हुई है
और चाँद नाम से क्यूँ लिखा इस की एक अलग कहानी है वो फिर कभी ]

kalagarh-कालागढ़/ aadil rasheed

मेरा जन्म 25 दिसम्बर 1967 को सी-824 वर्क चार्ज कालोनी कालागढ़ उत्तराखंड भारत में हुआ मेरा पैत्रक गांव तिलहर ज़िला शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश है .मेरे पिता स्वर्गीय अब्दुल रशीद सिचाई विभाग कालागढ़ उत्तराखंड में थे और उर्दु हिन्दी के आलोचक थे क्यूंकि उनको आलोचना का ज्ञान दादा जी कारी सुलेमान से प्राप्त हुआ था जो अरबी उर्दू फारसी के विद्वान् थे घर में साहित्य का माहोल था पड़ोस में ही एक शायर भी रहते थे जिनका नाम था तमन्ना अमरोही था. उनके घर और हमारे घर अदब की खूब महफ़िलें मजलिसें सजती थीं बड़े भाई का नाम खलील ,उनसे छोटे तौफीक मेरे छोटे का नाम रईस छुट्टन था कई कालागढ़ में दवाई की एक ही दूकान थी संजीव भैया की शॉप नो.4, मेरी शिक्षा हिंदी माध्यम से हुई घर में ही उर्दू अरबी की शिक्षा मां सरवरी बेगम और बड़ी बहिन कौसर परवीन के द्वारा हुई. मैं ने अपनी बारह वर्ष की उम्र में पहली टूटी फूटी कुन्ड्ली कही जो काका हाथरसी की शैली में थी वो कुन्ड्ली थी
कालागढ़ में पी.टी.सी. का खूब हुआ प्रचार
पी.टी.सी. की आड में चला राजनीति हथियार
चला राजनीति हथियार सेन्टर खुल ना पाया
चारो ओर घूमता अब बेरोजगारी का साया
क्या चली है चाल दिल खुश हो गय मेरे आका
था शान्त कर दिया घोषित अशान्त इलाका
इस कुन्ड्ली को हमारे ही पड़ोस में रहने वाले पंडित जी श्री ह्रदय शंकर चतुर्वेदी जी ने अमर उजाला को भेज दिया और यह प्रकाशित हुई. जिसमे मेरा उप नाम चाँद छपा था हमारे गुरूजी श्री नंदन जी जो खुद एक हिंदी के कवि थे ने पढ़ी और मेरी बड़ी सराहना की फिर मेरि कुन्ड्लियां खूब प्रकाशित होने लगीं गुरूजी श्री नंदन जी ने पिताजी को बताया पिता जी ने बुला कर कहा कि कविता करनी ही है तो पहले साहिर लुध्यान्वी को पढो और देहली से हिंदी में साहिर की एक पुस्तक डाक द्वारा मंगा कर दी और फिर मुझे शायरी के बारे में बताया पिताजी के पास उर्दू की बहुत सी पुस्तकें आती थी बाद में मैं ने महबूब हसन खान नय्यर तिलहरी को भी अपनी ग़ज़लें दिखाईं और भारत से निकलने वाले सभी अखबार और पत्रिकाओं में मेरी रचनाये प्रकाशित हुईं अपनी बीमारी और गिरती सेहत के कारण नय्यर साहेब मुझे अपने साथी ताहिर तिलहरी के पास छोड़ आये ,मगर खुदा ने उनको नय्यर साहेब से पहले ही अपने पास बुला लिया 1992 में देहली आ गया और शायरी को त्याग दिया, मगर शेर कहता रहा aur प्रकाशित होता रहा एक मुलाक़ात में साहित्य के मशहूर आलोचक एव मुंशी प्रेम चाँद पर पी एच डी प्रो कमर रईस जो मेरे ही वतन के रहने वाले थे और पिताजी के बचपन के दोस्त भी उन्होने कहा की चाँद तुम्हारी शायरी में एक बात मुझे अच्छी लगी के तुम्हारे यहाँ मुहावरे बहुत आ रहे हैं जो हमारे भारत की एक अमूल्य धरोहर है और यही बात है जो तुम्हे और शायरों से अलग करती है तो मेरा ध्यान इस ओर गया उन्होंने ये भी कहा के एक ऐसी ग़ज़ल मुमकिन है तुम कहो जिसमे सिर्फ मुहावरे ही मुहावरे हो और उसे मुहावरा ग़ज़ल कहा जाए ये उर्दू हिंदी साहित्य में एक नया काम होगा और तुम अगर कोशिश करो तो ये हो सकता है मैं ने उनकी बात पल्लू से बाँध ली और फिर मैं ऐसी दो ग़ज़लें लेकर उनके पास गया वो बहुत प्रसन्न हुए और मुझे आशीर्वाद दिया आज वो हमारे बीच नहीं हैं मगर उनका आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रहेगा मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा के उनके मशवरे ने मुझे हिंदी उर्दू साहित्य की पहली मुहावरा ग़ज़ल कहने सौभाग्य प्रदान किया
मैं अपनी सभी मुहावरा ग़ज़लें स्वर्गीय प्रो.कमर रईस को समर्पित करता हूँ ....आदिल रशीद


ग़ज़ल
आदिल रशीद
सारी दुनिया देख रही हैरानी से
हम भी हुए हैं इक गुड़िया जापानी से

बाँट दिए बच्चों में वो सारे नुस्खे
माँ ने जो भी कुछ सीखे थे नानी से

ढूंढ़ के ला दो वो मेरे बचपन के दिन
जिन मे कुछ सपने हैं धानी-धानी से

प्रीतम से तुम पहले पानी मत पीना
ये मैं ने सीखा है राजस्थानी से

मै ने कहा था प्यार के चक्कर में मत पड़
बाज़ कहाँ आता है दिल मनमानी से

बिन तेरे मैं कितना उजड़ा -उजड़ा हूँ
दरिया की पहचान फ़क़त है पानी से

मुझ से बिछड़ के मर तो नहीं जाओगे तुम
कह तो दिया ये तुमने बड़ी आसानी से

पिछली रात को सपने मे कौन आया था
महक रहे हो आदिल रात की रानी से
आदिल रशीद
kalagarh

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

kalagarh ki yadon ke naam ek kavita /aadil rasheed

यादो के रंगों को कभी देखा है तुमने
कितने गहरे होते हैं
कभी न छूटने वाले
कपडे पर रक्त के निशान के जैसे
मुद्दतों बाद आज आया हूँ मैं
इन कालागढ़ की उजड़ी बर्बाद वादियों में
जो कभी स्वर्ग से कहीं अधिक थीं
जाति धर्म के झंझटों से दूर
सोहार्द सदभावना प्रेम की पावन रामगंगा
तीन बेटियों और एक बेटे का पिता हूँ मैं आज
परन्तु इस वादी मे आकर
ये क्या हो गया
कौन सा जादू है
वही पगडंडी जिस पर कभी
बस्ता डाले कमज़ोर कन्धों पर
जूते के फीते खुले खुले से
बाल सर के भीगे भीगे से
स्कूल की तरफ भागता ,
वापसी मे
सुकासोत की ठंडी रेट पर
जूते गले में डाले
नंगे पैरों पर वो ठंडी रेत का स्पर्श
सुरमई धुप मे
आवारा घोड़ों
और कभी कभी गधों को
हरी पत्तियों का लालच देकर पकड़ता
और उन पर सवारी करता
अपने गिरोह के साथ डाकू गब्बर सिंह
रातों को क्लब की
नंगी ज़मीन पर बैठ फिल्मे देखता
शरद ऋतू में रामलीला में
वानर सेना कभी कभी
मजबूरी में बे मन से बना
रावण सेना का एक नन्हा सिपाही
और ख़ुशी ख़ुशी रावण की हड्डीया लेकर
भागता बचपन मिल गया
आज मुद्दतों पहले
खोया हुआ
चाँद मिल गया

kalagarh ki zindagi



शायद ज़िन्दगी बदल रही है!


शायद ज़िन्दगी बदल रही है!!
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया बहुत बड़ी हुआ करती थी..
मुझे याद है मेरे घर से "स्कूल" तक का वो रास्ता, क्या क्या नहीं था
वहां, चाट के ठेले, जलेबी की दुकान, बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब वहां "मोबाइल शॉप", "विडियो पार्लर" हैं, फिर भी सब सूना है..
शायद अब दुनिया सिमट रही है...
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जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी.
मैं हाथ में पतंग की डोर पकडे, घंटो उडा करता था, वो लम्बी "साइकिल रेस",
वो बचपन के खेल, वो हर शाम थक के चूर हो जाना,
अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है.
शायद वक्त सिमट रहा है..
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जब मैं छोटा था, शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना, वो दोस्तों के घर का खाना, वो साथ रोना, अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है, जब भी "ट्रेफिक सिग्नल" पे मिलते हैं "हाई" करते
हैं, और अपने अपने रास्ते चल देते हैं,
होली, दिवाली, जन्मदिन , नए साल पर बस SMS आ जाते हैं
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं..
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जब मैं छोटा था, तब खेल भी अजीब हुआ करते थे,
छुपन छुपाई, लंगडी टांग, पोषम पा, कट थे केक, टिप्पी टीपी टाप.
अब इन्टरनेट, ऑफिस, हिल्म्स, से फुर्सत ही नहीं मिलती..
शायद ज़िन्दगी बदल रही है.
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जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है.. जो अक्सर कबरिस्तान के बाहर बोर्ड पर
लिखा होता है.
"मंजिल तो यही थी, बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी यहाँ आते आते "
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जिंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है.
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने मैं ही हैं.
अब बच गए इस पल मैं..
तमन्नाओ से भरे इस जिंदगी मैं हम सिर्फ भाग रहे हैं..
हम अब जिंदगी को जी कहाँ रहे है सिर्फ़ काट रहे हैं

वाकई ज़िन्दगी बदल चुकी है!